बर्तन मांजते - मांजते
घिस गए हाँथ
हो गयीं मटमैली चूड़ियाँ
सपने देखते - देखते
थक गयीं आँखें
ख़त्म न हुईं मजबूरियाँ ।
अपनी मजबूरी का दोष
किसे दूँ ,
अपने को , पति को , समाज को ,
सुना न पाई जो सबको ,
उस दबी आवाज़ को ।
कौन लेगा भार यह
कौन करेगा उद्धार
सुनती थी कुछ होते हैं
जीवन के सत्यविचार
खो गए वे कहाँ पर
किन लोगों ने लिया लूट
कम से कम इसके लिए तो
हमें दी जानी चाहिए छूट .
Tuesday, July 1, 2008
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1 comment:
hi mam...really u rock...keep going mam
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