Saturday, July 26, 2008

भूख

संसार रुपी सागर में
तिरते हैं जन
लेकर भूखी आंतें
और प्यासा मन

आपने देखा है भूख को?
उसका सम्बन्ध जिजीविषा से है
किंतु भूख के रूप हैं अनेक
यह तो सहज है क्यों सबों को
लगती है रोटियों की भूख
किंतु यदि लग जाए भूख
दौलत की,सफलता की
मान सम्मान की, इर्ष्या की
तो क्या हो?
सच तो यह की हम सब
अलग अलग तरह की भूख से
परेशान हैं,बदहाल हैं और
अपनी अपनी भूख को
पोसने और पालने के लिए
विवश हैं
लेकिन हमें कभी
समानता, इमानदारी , सच्चाई
की भूख नहीं जगती
क्या हो गया इन मनोभावों का
इर्ष्या,निंदा की भूख
से परेशान हैं
इसी को मजे से मिटा मिटा कर
अपने जीवन को
सुखद बनाना चाहते हैं







Friday, July 25, 2008

"मैं"

अहं अहं की टक्कर में,
दुनिया खा रही चक्कर
मैं बड़ा सबसे अनूठा,
कैसा है ये घनचक्कर

जाती है तो जाए दुनिया,
भड़भूजे की भाड़ में
मेरा वजूद बचा रहे,
बस,परदे की आड़ में

संवेदना की मीना बाज़ार में,
सख्त कर्फ्यू लग गया
स्वार्थ के सुंदर घेरे में,
सबका मन ही बस गया

मान सम्मान पाने की,
आशा बड़ी प्रबल है
सबको करती दुखी और,
करती सबसे छल है

मन की गहराई में,
बहते जितने भाव हैं
जो जहाँ है उसे वहीँ,
मिलता नूतन छांव है

ईश्वर का कमाल है देखो,
सबको दिया है दिलासा
जो जहाँ है वहीँ सोचता,
कोई नहीं है मुझसा

मैं बड़ा हूँ,मैं बड़ा हूँ,
सबसे बड़ा हो जाऊं
लोग क्या सोचते मेरे बारे में,
सोच सोच इतराऊँ

जीवनरूपी इस कोल्हू के,
फिरते हम सब बैल हैं
गोल गोल घूमती दुनिया,
अद्भुत अनोखा खेल है


Wednesday, July 2, 2008

चिकने घडे

हमसब है चिकने घडे
कुछ भी न पल्ले पड़ता है
न बसंत न मदन न कोई और
अपना ध्यान आकर्षित करता है
हाय हाय से पीड़ित हम
और अधिक और अधिक
कब होंगे संतुष्ट पता नहीं
धरती आकाश चाँद तारे
सब हो ज्ञान हमारे नाम
तब भी नहीं
क्यूंकि
फ़िर भी बचता है पाताल
जिसे पाने के लिए हम होंगे
व्यथित दुखी

मुनिया

इसी में शाम हो गई
जिन्दगी बहते बहते खो गई
बीमार पति , भूखे बच्चे ,
भूखा पेट
ढोते ढोते
मुनिया की माई
खोखली हो गई

धोखा

आशा और अभिलाषाओं का क्षितिज
आज इतना विस्तृत हो गया है
कि हम स्वयं क्षितिज होने का दंभ भर रहे हैं
लेकिन क्षितिज तो मिलन बिन्दु नहीं है
धरती और आकाश का
वह तो केवल आभास मात्र है
और हम भी तो आभासित ही करते हैं
स्वयं को , जो वस्तुतः नहीं है ,
हममें न तो क्षितिज की विशालता है
और न ही उसकी स्वच्छता
हममे तो है केवल संकीर्णता और स्वार्थलोलुपता
पर हम स्वयं की तुलना क्षितिज से कर
जो अपनी विशालता का आभास कर रहे हैं
लोगों को नहीं स्वयं को धोखा दे रहे हैं .

Tuesday, July 1, 2008

मजबूरी

बर्तन मांजते - मांजते
घिस गए हाँथ
हो गयीं मटमैली चूड़ियाँ
सपने देखते - देखते
थक गयीं आँखें
ख़त्म न हुईं मजबूरियाँ ।
अपनी मजबूरी का दोष
किसे दूँ ,
अपने को , पति को , समाज को ,
सुना न पाई जो सबको ,
उस दबी आवाज़ को ।
कौन लेगा भार यह
कौन करेगा उद्धार
सुनती थी कुछ होते हैं
जीवन के सत्यविचार
खो गए वे कहाँ पर
किन लोगों ने लिया लूट
कम से कम इसके लिए तो
हमें दी जानी चाहिए छूट .

तपन

ऊँचे धरातल पर बैठ हम खो देते हैं
स्वयं को , अस्तित्व को , व्यष्टि को
सारी सृष्टि को प्रकाशित करने के लिए
सूरज को जलना पड़ता है
तभी वो पाता है देवत्व
श्रद्धा , सुमन , पुष्प , अर्घ्य
अगर उच्चता को प्राप्त करना हो
तो सन्नद्ध रहना होगा स्वयं को तपाने के लिए
बिना तपे सोना भी नहीं निखरता है
जीवन की कठिनाइयों की तपन
तपा-तपा कर मनुष्य को महान बनाती है
बत्ती के जिस भाग को लौ बनना होता है
उसे स्वयं जल कर प्रकाश फैलाना होता है
हम शीर्षस्थ बनने की कामना करते हैं
किंतु जलने से डरते हैं
इसी से सारी व्यवस्था अस्त- व्यस्त हुई है
क्या कोई दीप बिना जले
प्रकाश दे सकता है ?

जीवन

जीवन हम मनुष्यों का
भटकन और थकन
चुभन , जलन , तपन
आलोड़न और विलोड़न
फ़िर भी आनंदमय .
मन डरता है मृत्यु से
जो हमें बैकुंठ पहुँचा
सकती है , उस शक्ति से
हमें इसी तपन की चाह है
हम संसाररूपी मृगतृष्णा के प्यासे
भ्रमण का आधार ढूँढ़ते रहते हैं
बिना इसके आनंद कहाँ ?
राजमहलों में रहनेवाले भी
यायावर बनना पसंद करते हैं ,
क्यूंकि भ्रमण में उल्लास है
विश्राम में शैथिल्य
एक आकांक्षा पूरी होने के बाद
हम दूसरी को बनाते हैं
संजोते और संवारते हैं
फ़िर उसके लिए
व्यथित ही रहते हैं