आशा और अभिलाषाओं का क्षितिज
आज इतना विस्तृत हो गया है
कि हम स्वयं क्षितिज होने का दंभ भर रहे हैं
लेकिन क्षितिज तो मिलन बिन्दु नहीं है
धरती और आकाश का
वह तो केवल आभास मात्र है
और हम भी तो आभासित ही करते हैं
स्वयं को , जो वस्तुतः नहीं है ,
हममें न तो क्षितिज की विशालता है
और न ही उसकी स्वच्छता
हममे तो है केवल संकीर्णता और स्वार्थलोलुपता
पर हम स्वयं की तुलना क्षितिज से कर
जो अपनी विशालता का आभास कर रहे हैं
लोगों को नहीं स्वयं को धोखा दे रहे हैं .
Wednesday, July 2, 2008
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