"मैं"
अहं अहं की टक्कर में,
दुनिया खा रही चक्कर
मैं बड़ा सबसे अनूठा,
कैसा है ये घनचक्कर
जाती है तो जाए दुनिया,
भड़भूजे की भाड़ में
मेरा वजूद बचा रहे,
बस,परदे की आड़ में
संवेदना की मीना बाज़ार में,
सख्त कर्फ्यू लग गया
स्वार्थ के सुंदर घेरे में,
सबका मन ही बस गया
मान सम्मान पाने की,
आशा बड़ी प्रबल है
सबको करती दुखी और,
करती सबसे छल है
मन की गहराई में,
बहते जितने भाव हैं
जो जहाँ है उसे वहीँ,
मिलता नूतन छांव है
ईश्वर का कमाल है देखो,
सबको दिया है दिलासा
जो जहाँ है वहीँ सोचता,
कोई नहीं है मुझसा
मैं बड़ा हूँ,मैं बड़ा हूँ,
सबसे बड़ा हो जाऊं
लोग क्या सोचते मेरे बारे में,
सोच सोच इतराऊँ
जीवनरूपी इस कोल्हू के,
फिरते हम सब बैल हैं
गोल गोल घूमती दुनिया,
अद्भुत अनोखा खेल है
4 comments:
खुबसूरत. Ma'am बहुत ही अच्छा लिखा है आपने.
लिखते रहिये. शुक्रिया.
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साथ ही आपको उल्टा तीर पर जारी बहस में आपके अमूल्य विचारों के लिए भी कहूँगा, व् आमंत्रित करता हूँ, "उल्टा तीर" मंच की ओर से
जश्ने-आज़ादी-२००८ की पत्रिका में अपने विचारों के साथ शिरकत करने हेतु. शुक्रिया
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यहाँ पधारे;
उल्टा तीर।
हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है. नियमित लेखन के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाऐं.
वर्ड वेरिपिकेशन हटा लें तो टिप्पणी करने में सुविधा होगी. बस एक निवेदन है.
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