धरती प्यासी
गगन है प्यासा
प्यासे हैं इस जग के लोग
अपनी अपनी प्यास लिए सब
करते हैं जीवन का भोग
कोई प्यासा कुंदन का है
कोई प्यासा चंदन का
कोई प्यासा शक्ति का है
कोई प्यासा भक्ति का
कलियों को है प्यास किरण की
चकोर चाँद का प्यासा है
भवरें को है प्यास कुसुम की
चातक स्वाति का प्यासा है
प्रेम के प्यासे रीत गए हैं
काम के प्यासे हैं सबलोग
श्रद्धा की नदी सूख गई है
इर्ष्या करती अपना भोग
कोई पीता घूँट घूँट कर
कोई निगलना चाहता है
घूँट घूँटकर निगल निगलकर
पीते हैं पर प्यासे लोग
Sunday, June 29, 2008
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1 comment:
aisa prateet hota hai ki aapne samaaj ke upar bhi gehen chintan evam manan kiya hai. achi kavita hai. main aur kavitayen padhna chahta hoon. kripiya aap apne kaarya update karte rahen.
aapka shubhchintak.
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