Monday, October 13, 2008

अस्तित्व

इस स्वार्थी समाज में
क्षण क्षण बदलते जा रहे हैं हम
छीजते जा रहे हैं हम
गलते जा रहे हैं हम
जिन पर था विश्वास असीम
उन्हीं से धोखा खा रहें हैं हम ।
हम हैं क्या ?
मिटटी के खिलौने ,
फूल के खिलने और मुरझाने के बीच
जो समय और स्थिति होती हैं
वही स्थिति झेल रहे हैं हम ।
मेरा दिल कांच का बना क्यूँ न हुआ
जिसके टूटने पर बारीक शीशे के कण
उड़ जाते हैं
और अस्तित्व समाप्त हो जाता है ।
अब तो दिल के टूटे हुए
बहुत दिन बीते और
अस्तित्व खोखला सा ही सही
बना हुआ है
इस खोखले दिल को
फ़िर से बसने की कोशिश में
दिन रात एक कर रहे हैं हम ।
जब सफर लंबा हो
और सहयात्री ढोंगी निकल जाए
ऐसी स्थिति को सँभालने की
कोशिश में लगे हुए हैं हम

1 comment:

Indu said...

bahut gahraai hai!