इस स्वार्थी समाज में
क्षण क्षण बदलते जा रहे हैं हम
छीजते जा रहे हैं हम
गलते जा रहे हैं हम
जिन पर था विश्वास असीम
उन्हीं से धोखा खा रहें हैं हम ।
हम हैं क्या ?
मिटटी के खिलौने ,
फूल के खिलने और मुरझाने के बीच
जो समय और स्थिति होती हैं
वही स्थिति झेल रहे हैं हम ।
मेरा दिल कांच का बना क्यूँ न हुआ
जिसके टूटने पर बारीक शीशे के कण
उड़ जाते हैं
और अस्तित्व समाप्त हो जाता है ।
अब तो दिल के टूटे हुए
बहुत दिन बीते और
अस्तित्व खोखला सा ही सही
बना हुआ है
इस खोखले दिल को
फ़िर से बसने की कोशिश में
दिन रात एक कर रहे हैं हम ।
जब सफर लंबा हो
और सहयात्री ढोंगी निकल जाए
ऐसी स्थिति को सँभालने की
कोशिश में लगे हुए हैं हम
Monday, October 13, 2008
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1 comment:
bahut gahraai hai!
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