Monday, October 13, 2008

अस्तित्व

इस स्वार्थी समाज में
क्षण क्षण बदलते जा रहे हैं हम
छीजते जा रहे हैं हम
गलते जा रहे हैं हम
जिन पर था विश्वास असीम
उन्हीं से धोखा खा रहें हैं हम ।
हम हैं क्या ?
मिटटी के खिलौने ,
फूल के खिलने और मुरझाने के बीच
जो समय और स्थिति होती हैं
वही स्थिति झेल रहे हैं हम ।
मेरा दिल कांच का बना क्यूँ न हुआ
जिसके टूटने पर बारीक शीशे के कण
उड़ जाते हैं
और अस्तित्व समाप्त हो जाता है ।
अब तो दिल के टूटे हुए
बहुत दिन बीते और
अस्तित्व खोखला सा ही सही
बना हुआ है
इस खोखले दिल को
फ़िर से बसने की कोशिश में
दिन रात एक कर रहे हैं हम ।
जब सफर लंबा हो
और सहयात्री ढोंगी निकल जाए
ऐसी स्थिति को सँभालने की
कोशिश में लगे हुए हैं हम

नादिरशाह

निर्दयी क्रूर काल ने
बनाया था एक नादिरशाह
उसकी क्रूरता से धरती
कांप उठी थी
आज तो हजारों नादिरशाह हैं
लोग पस्त हैं
मानवता त्रस्त है
सभ्य सुसंस्कृत देश में
छिपे नदिरशाहों से ।
नादिरशाह का कत्ले आम
होता था खुले आम
बचने की उपाय अनेक थे
उसकी अधीनता स्वीकारना

इस्लाम कबूल कर लेना
आज के नादिरशाह
करते हैं भीतरघात
न जीवन सुरक्षित है
न इज्जत

पता नहीं किस मुद्दे पर
हो जाए हम पर आघात
ये विवशता त्राषद है
जिस देश का हर व्यक्ति
नादिरशाह बनने लगा हो
उस देश की मानवता का
खुदा हाफिज़ ।

जिजीवषा

एक क्षत विक्षत अंगो वाला भिक्छुक
अपने नासिका विहीन मुख एवं
ऊँगली विहीन हाथ पाव लिए
दान के लिए कटोरा फैलता है
अपने शरीर की रक्षा हेतु
तत्परता से पार कर जाता है सड़कें
जिजीवषा की प्यास उसे भी भरमाती है
इतनी विकृतियों के बाद भी
जीवन का लुभावना रूप दिखाती है