Monday, June 30, 2008

जीवन का सुख

बारह बरस की मुनिया
उसकी शादी हो गई
माँ ने गंगा स्नान किया
पिता भार मुक्त हुआ
और
पति ने दो बरस बाद
चरित्रहीनता का आरोप लगाकर
उसे घर से निकल दिया
अब घर घर बर्तन मांजती है
और
समाज के सफेदपोशों के गिरेबान में
जीवन का सुख भोगती है

मानवता

हम बैठे हैं बारूद के टीले पर
हमीं ने जमा किए हैं बारूद
सभ्यता के नाम पर
हम सभ्य हो गए हैं क्यूंकि
हम रहते हैं लोहे और सीमेंट के बने जंगलों में
प्रकृति से प्रगति करते करते
आज बारूद के ढेर पे बैठे हम
मानवता के भविष्य के लिए चिंतित भी हैं
इसीलिय करते हैं पृथ्वी सम्मलेन या निर्श्त्री करण की बातें
मानवता के विनाश की सारी सामग्री जुटा
हम मानवता की रक्षा हेतु सभाएं करते हैं
हमारा ऐसा करना हमारी नियति है
भविष्य के अन्धकार से अनजान
हम लोग मानवता की डाल को
मानवता की कुल्हाडी से काटते जाते हैं
हमारी विनाशलीला सतत जारी है

आज वो बात नहीं

रात की बात में
प्रात के प्रकाश में
जीवन के आस में
आज वो बात नहीं
सागर के प्रवाह में
जीवन की चाह में
अग्नि की दाह में
आज वो बात नहीं
भंवरो के गुंजन में
कोयल के कुंजन में
नैनों के रंजन में
आज वो बात नहीं
अरुण के तेज़ में
वरुण के वेग में
पवन के संवेग में
आज वो बात नहीं
मन के प्रीत में
जीवन के गीत में
प्रीत के रीत में
आज वो बात नहीं
विरह के उन्मेष में
मेघ के संदेश में
प्रेम के आवेश में
आज वो बात नहीं

Sunday, June 29, 2008

राम

हे राम तुमसे क्या कहूं
इस विनाश की बेला में
कैसे मैं मौन गहूं
कबसे हो गए महलों के वासी
जाना था तुमको
हमने वनवासी जिस राज अयोध्या
का तुमने
छन भर में परित्याग किया
उस राज अयोध्या में तुमने भीषण नर संघार किया
राज तो राज सीता को भी
छोड़ा है तुमने तृणवत
इस अयोध्या की भूमि को
छोड़ ना सके कृपणवत
हो गए कब से इतने निर्बल
डर डर के रहने लगे
अपनी सुरक्षा के लिए तुमने
पहरेदारों की सेना खड़ी किए
ये कैसा परिवर्तन है
ये कैसा चरित्र पतन
त्याग दया की मूर्ति तुम
हो गए आदर्शों का हनन
रचेगा पुनः एक रामायण
कहेगा राम बदल गए
सतयुग त्रेता के राम
कलयुग में स्वार्थी भये

प्यास

धरती प्यासी
गगन है प्यासा
प्यासे हैं इस जग के लोग
अपनी अपनी प्यास लिए सब
करते हैं जीवन का भोग
कोई प्यासा कुंदन का है
कोई प्यासा चंदन का
कोई प्यासा शक्ति का है
कोई प्यासा भक्ति का
कलियों को है प्यास किरण की
चकोर चाँद का प्यासा है
भवरें को है प्यास कुसुम की
चातक स्वाति का प्यासा है
प्रेम के प्यासे रीत गए हैं
काम के प्यासे हैं सबलोग
श्रद्धा की नदी सूख गई है
इर्ष्या करती अपना भोग
कोई पीता घूँट घूँट कर
कोई निगलना चाहता है
घूँट घूँटकर निगल निगलकर
पीते हैं पर प्यासे लोग

अधिकार

अधिकार का सुख
देता है आनंद
अधिकार छीनने की आशंका
मन को करती निरानंद
मानव मन की ईच्छा ने सारा इतिहास रचा है
प्रवाह काल का उथल पुथल को
सहता ही चला है
जब सदवृतियाँ हुई तिरोहित कुवृतियों का राज हो व्यथित मन जाने क्या सोचे
कब किस किससे काज हो
है जीवन संग्राम भयंकर
सभी इसमे त्रस्त हैं
लेकिन दूसरों की टांगे खीचने में ही
सारे व्यस्त हैं
कठिन जिन्दगी कठिन जीवन कठिन सारे क्रिया कलाप
कठिन से कठिनतर है संयमित रखना अपने आप
सबके साथ मिलकर रहना
और कठिन है भाई
इसीलिए तो होती आई दुनिया में लड़ाई